आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध नृत्य रूप: परंपरा, भक्ति और कला की जीवंत धड़कन

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भारत विविधताओं का देश है, जहां हर राज्य अपनी अलग संस्कृति, भाषा, पहनावा और परंपराओं के लिए जाना जाता है। दक्षिण भारत का गौरव, आंध्र प्रदेश, सिर्फ अपने ऐतिहासिक मंदिरों और स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी जीवंत नृत्य परंपराओं के लिए भी बेहद प्रसिद्ध है। इस राज्य के नृत्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं हैं, बल्कि वे सांस्कृतिक पहचान, धार्मिक आस्था और सामाजिक संदेशों के वाहक भी हैं।

इस ब्लॉग में हम आंध्र प्रदेश के उन प्रमुख शास्त्रीय, लोक और जनजातीय नृत्य रूपों को विस्तार से जानेंगे, जो इस राज्य की सांस्कृतिक आत्मा को सजीव करते हैं।


1. शास्त्रीय नृत्य रूप: परंपरा और आध्यात्मिकता का संगम

1.1 कुचिपुड़ी (Kuchipudi): आंध्र की सांस्कृतिक धड़कन

कुचिपुड़ी भारत के आठ प्रमुख शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक है, जिसकी जड़ें आंध्र प्रदेश के ‘कुचिपुड़ी’ गांव से जुड़ी हुई हैं। यह नृत्य संगीत, अभिनय और नाटकीयता का अद्भुत समन्वय है। इसकी उत्पत्ति 17वीं शताब्दी में सिद्धेन्द्र योगी के प्रयासों से हुई, जिन्होंने इसे धार्मिक रंगमंच की तरह विकसित किया।

मुख्य विशेषताएँ:

  • कुचिपुड़ी में ‘नृत्य नाटिका’ शैली प्रमुख है जिसमें कलाकार कथात्मक शैली में अभिनय करते हैं।
  • विषय अधिकतर भगवान कृष्ण और राम की लीलाओं से जुड़े होते हैं।
  • नर्तक थाली पर खड़े होकर दीपक के साथ नृत्य करते हैं—जो इसकी सबसे अनोखी विशेषता है।

वाद्ययंत्र: मृदंगम, वायलिन, वीणा, बांसुरी, तंबूरा।

परिधान: महिलाएं कांजीवरम साड़ी पहनती हैं और पुरुष पारंपरिक धोती व अंगवस्त्र।


1.2 आंध्र नाट्यम (Andhra Natyam): मंदिरों की पवित्र अभिव्यक्ति

आंध्र नाट्यम एक अत्यंत प्राचीन नृत्य रूप है जो एक समय में मंदिरों, राज दरबारों और जन उत्सवों में प्रस्तुत किया जाता था। यह नृत्य केवल महिलाएं करती हैं और यह देव पूजा का अभिन्न अंग था। 20वीं शताब्दी में यह लगभग विलुप्त हो चुका था, लेकिन सांस्कृतिक पुनरुद्धार ने इसे फिर से जीवंत किया।

इसके तीन प्रमुख रूप हैं:

  • आगम नर्तनम्: मंदिरों में देवताओं को समर्पित नृत्य।
  • अस्थाना नर्तनम्: दरबार में प्रस्तुत शृंगार रस पर आधारित नृत्य।
  • प्रबंध नर्तनम्: कथा-आधारित, नाटकीय शैली में नृत्य प्रस्तुति।

1.3 विलासिनी नाट्यम (Vilasini Natyam): देवदासी परंपरा का पुनरुद्धार

विलासिनी नाट्यम, आंध्र प्रदेश की प्राचीन देवदासी परंपरा से जुड़ा है। एक समय था जब मंदिरों में देवियों की सेवा में महिलाएं नृत्य करती थीं। कालांतर में जब यह परंपरा समाप्त हो गई, तो यह नृत्य रूप भी लुप्त हो गया।

नृत्यांगना स्वप्ना सुंदरि ने इस विलुप्त हो चुके नृत्य को पुनर्जीवित किया और इसे “विलासिनी नाट्यम” नाम दिया। यह नृत्य नारी सौंदर्य, भक्ति और लयबद्ध भावों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।


2. लोकनृत्य रूप: जनजीवन की जीवंत अभिव्यक्ति

2.1 वीर नाट्यम (Veeranatyam): शिव की प्रचंडता का प्रतीक

‘वीर नाट्यम’ का अर्थ है ‘वीरों का नृत्य’। यह भगवान शिव के अति क्रोधित रूप वीरभद्र की पूजा के रूप में किया जाता है। यह नृत्य प्रायः तेलंगाना क्षेत्र के शैव समुदायों द्वारा किया जाता है।

प्रमुख विशेषताएँ:

  • नर्तक सिर पर अग्नि कलश, हाथ में तलवार, और शरीर पर शस्त्रधारी श्रृंगार धारण करते हैं।
  • इस नृत्य में अंगों को छेदने की क्रिया भी की जाती है जो भक्ति और साहस का प्रतीक मानी जाती है।
  • यह नृत्य पाँच चरणों में संपन्न होता है।

2.2 तप्पेटा गुल्लु (Tappeta Gullu): प्रकृति और देवी के प्रति आस्था

यह नृत्य विशाखापट्टनम, श्रीकाकुलम और विजयनगरम जिलों में गंगम्मा देवी को समर्पित किया जाता है। इसमें नर्तक गले में छोटे ड्रम (तप्पेटा) पहनते हैं और लयबद्ध ढोल के साथ सामूहिक नृत्य करते हैं।

विशेषताएँ:

  • पुरुष नर्तकों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
  • वर्षा के लिए प्रार्थना, फसल की समृद्धि और देवी की कृपा के लिए किया जाता है।

2.3 बुट्टा बोम्मालु (Butta Bommalu): मुखौटों की जादुई दुनिया

‘बुट्टा बोम्मालु’ का शाब्दिक अर्थ है ‘झोपड़ी की गुड़िया’। यह एक प्रकार का नकाबपोश लोकनृत्य है जो पश्चिम गोदावरी और ईस्ट गोदावरी क्षेत्रों में प्रचलित है। कलाकार बांस, घास और गोबर से बने विशाल मुखौटे पहनकर धार्मिक और पौराणिक कथाओं का मंचन करते हैं।

मुख्य उद्देश्य: समाज को नैतिक शिक्षा देना, पौराणिक गाथाओं को जीवंत करना।


2.4 कोलाट्टम (Kolattam): ताल और रंगों का उत्सव

कोलाट्टम, गुजरात के डांडिया जैसा नृत्य है लेकिन यह खास तौर पर तेलुगु त्योहारों में किया जाता है। यह एक समूह नृत्य है जिसमें महिलाएं रंग-बिरंगी लाठियों से तालबद्ध नृत्य करती हैं।

प्रमुख प्रकार: पिन्नल कोलाट्टम – जिसमें रस्सियों से आकृतियाँ बनाई जाती हैं।


3. जनजातीय नृत्य: आदिवासी जीवन और प्रकृति से जुड़ी लय

3.1 धिमसा (Dhimsa): अराकू घाटी की सांस्कृतिक आत्मा

धिमसा नृत्य विशाखापट्टनम और अराकू घाटी की आदिवासी जनजातियों (वाल्मीकि, कोन्ड, बगाता) द्वारा किया जाता है। महिलाएं घेरा बनाकर धीरे-धीरे कदमों के साथ नृत्य करती हैं और पुरुष पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हैं।

इस नृत्य का उद्देश्य:

  • विवाह जैसे शुभ कार्यों में हर्ष प्रकट करना।
  • वर्षा और अच्छी फसल के लिए प्रार्थना करना।

3.2 लांबाड़ी नृत्य (Lambadi Dance): रंग-बिरंगे जीवन की गाथा

लांबाड़ी नृत्य बंजारा समुदाय द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, जिनकी उत्पत्ति राजस्थान से मानी जाती है। महिलाएं चटकीले रंगों की पोशाक पहनकर, मिरर वर्क और आभूषणों से सजकर समूह में नृत्य करती हैं।

गीतों की विशेषता:

  • जीवन की कठिनाइयों, प्रेम, फसल, भक्ति और यात्रा के विषय पर आधारित होते हैं।
  • गीतों में हिंदी, तेलुगु और मराठी का मिश्रण होता है।

आंध्र प्रदेश के नृत्य और उनका सामाजिक महत्व

  • ये नृत्य रूप न केवल मनोरंजन हैं बल्कि सामाजिक संदेश और सांस्कृतिक एकता के वाहक भी हैं।
  • मंदिर, पर्व, फसल कटाई, विवाह, देवी पूजन, और युद्ध स्मरण – हर अवसर पर अलग नृत्य रूप अपनाए जाते हैं।
  • महिलाओं और पुरुषों दोनों की समान भागीदारी इन नृत्य परंपराओं की खूबसूरती को बढ़ाती है।

🔺 निष्कर्ष

आंध्र प्रदेश के नृत्य केवल शारीरिक गति नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार हैं। हर कदम, हर ताल, हर भाव एक कहानी कहता है—कभी प्रेम की, कभी युद्ध की, कभी भक्ति की, और कभी सामाजिक चेतना की। इन नृत्य रूपों को देखकर यह स्पष्ट होता है कि आंध्र प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत कितनी समृद्ध, जीवंत और रंगीन है।

आज जब विश्व संस्कृति के नाम पर एकरूपता की ओर बढ़ रहा है, आंध्र प्रदेश जैसे राज्य हमें यह याद दिलाते हैं कि हमारी जड़ें हमारी पहचान हैं। यदि आप भारत की सांस्कृतिक विविधता को सच में समझना चाहते हैं, तो आंध्र प्रदेश के इन जीवंत नृत्य रूपों से बेहतर शुरुआत कोई नहीं हो सकती।

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